आज बात स्विस मनोचिकित्सक कार्ल गुस्ताव जुंग की। इन्होंने पॉल ब्रान्टन की पुस्तक 'इन सर्च ऑफ सीक्रेट इंडिया' पढ़ी। इसमें इन्हें भारतीय संत महर्षि रमण व उनकी आध्यात्म विद्या की अनुसंधान विधि का पता चला। जिज्ञासु जुंग की इनसे मिलने की इच्छा हुई। संयोगवश 1938 में उन्हें ब्रिटिश सरकार ने भारत बुलाया। इस प्रस्ताव को वह अस्वीकार न कर सके और सर्द मौसम में भारत आ गए। दिल्ली पहुंचकर उन्होंने सरकारी काम निपटाया, फिर निकल पड़े तिरुवन्नमलाई के अरूणाचलम पर्वत पर की तरफ। महर्षि रमण का यहीं निवास था। आश्रम में यह अंग्रजी के जानकार एक संत अन्नामलाई स्वामी से मिले। तय हुआ कि महर्षि रमण का दर्शन शाम में होगा।
शाम को अरूणाचलम की तलहटी में खुले स्थान पर महर्षि से जुंग की मुलाकात हुई। पहली मुलाकात में ही जुंग को इस योगी से अपनत्व महसूस हुआ। हालांकि उनके मन में यह शंका थी कि क्या महर्षि उनके वैज्ञानिक मन की जिज्ञासाओं का समाधान कर पाएंगे। जुंग सोच ही रहे थे कि मुस्कराते हुए महर्षि रमण ने कहा, प्रचीन भारतीय ऋषियों की आध्यात्म विद्या पूरी तरह वैज्ञानिक है। आपकी शब्दावली में इसे वैज्ञानिक आध्यात्म कहना सही रहेगा। देखा जाए तो इसके पांच मूल तत्व हैं, 1. जिज्ञासा, विज्ञान इसे शोध समस्या कहता है, 2. प्रकृति एवं स्थिति के अनुरुप साधना का चयन अर्थात अनुसंधान, 3. शरीर की विकारहीन प्रयोगशाला में किए जाने वाले त्रुटिहीन प्रयोग। विज्ञान इसे नियंत्रित स्थिति में की जाने वाली वह क्रिया, प्रयोग मानता है, जिसका सतत सर्वेक्षण जरुरी होता है, 4. किए जा रहे प्रयोग का निश्चित क्रम से परीक्षण एवं सतत आकलन, 5. इन सबके परिणाम में सम्यक निष्कर्ष। सहज भाव से महर्षि ने अपनी बात पूरी की।
महर्षि फिर आसन छोड़कर टहलने लगे।
टहलते-टहलते उन्होंने बताया, मेरे आध्यात्मिक प्रयोग की वैज्ञानिक जिज्ञासा थी कि मैं कौन हूं? इसके समाधान के लिए मैंने मनन एवं ध्यान की अनुसंधान विधि का चयन किया। इसी अरुणाचलम पर्वत की विरूपाक्षी गुफा में शरीर व मन की प्रयोगशाला में मेरे प्रयोग चलते रहे। इन प्रयोगों के परिणाम रहा कि अपरिष्कृत अचेतन लगातार परिष्कृत होता गया। चेतना की नई-नई परतें खुलती गईं। अंत में मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि मेरा अहं आत्मा में विलीन हो गया। बाद में आत्मा परमात्मा से एकाकार हो गई। अहं का आत्मा में स्थानान्तरण मनुष्य को भगवान में रुपान्तरित कर दिया। बात सुनते-सुनते जुंग ने अपना चश्मा उतारा और रूमाल से उसे साफ कर फिर लगा लिया। उनके चेहरे पर पूर्ण प्रसन्नता व गहरी संतुष्टि के भाव थे। कुछ ऐसा कि उनकी दृष्टि का धुंधलका साफ सा हो गया हो। अब सब-कुछ स्पष्ट था। वैज्ञानिक आध्यात्म का मूल तत्व उनकी समझ में आ गया था।
भारत से लौटने के बाद येले विश्वविद्यालय में जुंग व्याख्यान दिया। इसका विषय था मनोविज्ञान और धर्म। इसमें उनके नवीन दृष्टिकोण का परिचय मिलता है। बाद के वर्षों में उन्होंने श्री रमण एंड हिज मैसेज टू माडर्न मैन की प्रस्तावना में लिखा कि श्री रमण भारत भूमि के सच्चे पुत्र हैं। वह आध्यात्म की वैज्ञानिक अभिव्यक्ति के प्रकाश स्तंभ हैं और साथ ही कुछ अद्भुत भी। उनके जीवन एवं शिक्षा में हमें उस पवित्रतम भारत के दर्शन होते हैं, जो समूची मानवता को वैज्ञानिक आध्यात्म के मूलमंत्र का संदेश दे रहा है।
कार्ल गुस्ताव जुंग (1875-1961)ः स्विस मनोचिकित्सक, प्रभावशाली विचारक व विश्लेषणात्मक मनोविज्ञान के संस्थापकों में से एक। जुंग को पहला ऐसा मनोविज्ञानी माना जाता है जिनके अनुसार मानव मन स्वभाव से धार्मिक है। इसका गहराई तक परीक्षण भी किया जा सकता है। फ्रायड की तरह इनका मानना था कि चेतन व्यवहार के पीछे अदृश्य अचेतन का हाथ रहता है। लेकिन कामवासना और उसके दमन के इर्द-गिर्द सिमटे फ्रायड से उनका मतभेद रहा। क्योंकि जुंग मानते थे कि जीवन के अचेतन की चेतना के पार भी कुछ आध्यात्मिक आयाम होते हैं।
महर्षि फिर आसन छोड़कर टहलने लगे।
टहलते-टहलते उन्होंने बताया, मेरे आध्यात्मिक प्रयोग की वैज्ञानिक जिज्ञासा थी कि मैं कौन हूं? इसके समाधान के लिए मैंने मनन एवं ध्यान की अनुसंधान विधि का चयन किया। इसी अरुणाचलम पर्वत की विरूपाक्षी गुफा में शरीर व मन की प्रयोगशाला में मेरे प्रयोग चलते रहे। इन प्रयोगों के परिणाम रहा कि अपरिष्कृत अचेतन लगातार परिष्कृत होता गया। चेतना की नई-नई परतें खुलती गईं। अंत में मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि मेरा अहं आत्मा में विलीन हो गया। बाद में आत्मा परमात्मा से एकाकार हो गई। अहं का आत्मा में स्थानान्तरण मनुष्य को भगवान में रुपान्तरित कर दिया। बात सुनते-सुनते जुंग ने अपना चश्मा उतारा और रूमाल से उसे साफ कर फिर लगा लिया। उनके चेहरे पर पूर्ण प्रसन्नता व गहरी संतुष्टि के भाव थे। कुछ ऐसा कि उनकी दृष्टि का धुंधलका साफ सा हो गया हो। अब सब-कुछ स्पष्ट था। वैज्ञानिक आध्यात्म का मूल तत्व उनकी समझ में आ गया था।
भारत से लौटने के बाद येले विश्वविद्यालय में जुंग व्याख्यान दिया। इसका विषय था मनोविज्ञान और धर्म। इसमें उनके नवीन दृष्टिकोण का परिचय मिलता है। बाद के वर्षों में उन्होंने श्री रमण एंड हिज मैसेज टू माडर्न मैन की प्रस्तावना में लिखा कि श्री रमण भारत भूमि के सच्चे पुत्र हैं। वह आध्यात्म की वैज्ञानिक अभिव्यक्ति के प्रकाश स्तंभ हैं और साथ ही कुछ अद्भुत भी। उनके जीवन एवं शिक्षा में हमें उस पवित्रतम भारत के दर्शन होते हैं, जो समूची मानवता को वैज्ञानिक आध्यात्म के मूलमंत्र का संदेश दे रहा है।
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